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हमें आदतों की जरूरत नहीं है?

हमें आदतों की जरूरत नहीं है?           यह कल्पना करना हम सबके लिए आसान है कि वे हैं, क्योंकि यह हमें अंकुशों से दूर कर देता है क्योंकि हमारी आदतें नकारात्मक हो जाती हैं, या यहां तक ​​​​कि कभी कभी लत भी।                 यदि कोई अन्य व्यक्ति उस आदत के बिना फल-फूल रहा है, जिसकी हमें आवश्यकता है, तो यह एक आवश्यकता होने का दिखावा करने की इच्छा होने की संभावना है।   उदाहरण के लिए: आप सोशल मीडिया पर समय व्यतीत किए बिना एक सफल पेशेवर बन सकते हैं।

एक संस्मरण

                              मलाई बर्फ वाला सत्तु जेठ महीने की कड़कती धूप तपती दोपहरी में आग उगलती हवायें अपने लय में बह रही थी इनके बीच आग की लपटों को चीरता हुआ एक मुसाफिर लगभग 6 फ़ीट लंबा पतला सा सूखे गन्ने की तरह चेहरे पर लंबी मुछ गहरी काली दाढ़ी, पिचके गाल पसीने से लथपथ भीगा हुआ कुर्ता, जोर से हाफ़तें हुए पुरानी साइकिल से जो चुर्र-चुर्र की आवाज करती हुई हमारे द्वार की ओर बढ़ी आ रही थी बिना ब्रेक लगाए ही साइकिल रुक चुकी थी। साइकिल के पीछे कॅरियल पर एक बड़ा बॉक्स का डब्बा रखा हुआ था जिसमें मलाई बर्फ रहा होगा, मैने ऐसा अंदाजा लगाया था। क्योंकि उस दौर में वैसे बॉक्स मलाई बर्फ बेचने के लिए ही उपयोग किये जाते थे। फटे हुए कुर्ते पहने नीचे एक पुराना गंदा सा सफेद रंग का पायजामा जो किसी और रंग में घुल चुका था। थोड़ी देर ऐसे स्तब्ध खड़ा रहा जैसे वह किसी दूसरे ग्रह पर पैर रख रहा हो,लेकिन वह तो मेरे घर का निरीक्षण कर रहा था जो उसकी निगाहें कुछ ढूढ़ रही थीं। अचानक से उसे अपनी मंजिल मुनासिब हुईं। साइकिल खड़ा करने के लिए सहारा ढूढ़ ही रह था कि नीम का एक पेड़ दिखाई दिया जिसके बगल नीम से सटा हुआ पत्थर का बड़ा ब

कविता - क्या अमीरी क्या गरीबी?

क्या अमीरी क्या गरीबी? क्या गरीबी क्या अमीरी?, मौत का साया खड़ा है। जन-जन से जान करके, राह सूने पर पड़ा है। जिस सड़क को हाथ से, समतल कर उसने बिछाया। आज पगपग नापता, यह रूप धरा पर कैसे आया? यह कौन अवधूत हैं, जो साथ इनके चल रहे हैं। मौत का साया बिछाए, यमदूत भी क्या चल रहे हैं? कौन समझे कौन जाने? दुख, विपत्ति और खाने।  राह सबको चाहिए, राह-गीर से मतलब नहीं। पग-पग बिना चप्पल,  वह, कांटो पर चलता जा रहा है। ज्वाला-धधकती गिट्टीयों पर, भारत सुलगता जा रहा है। ना भूख है ना प्यास है, आँखों में बस एक आश है। ना घर है, ना गांव है, पर गांव ही एक राह है। उन पूर्वजों के नाम से, गांवों का ही बस नाम है। दीपक सरीखे नाम के, केवल सहारे जा रहे हैं। गांव के मजदूर सारे, गांव वापस जा रहे हैं। जल रहे हैं मर रहे हैं, भूख-प्यास से तड़प रहे हैं। क्या करें मजबूर हैं वह, शहर के, बस मजदूर हैं वह। महलों को तैयार करते, करीने से उसको सजाते । ना कोई मतभेद रखते, ना कोई सपना संजोते। आज वह उपवास करके, भूखे स्वयं रह जाएंगे। भगवान जाने बच्चे उनके, आज फिर क्या खायेगें? वर्तमान आज उनका है, कल यही इतिहास होगा