एक संस्मरण
मलाई बर्फ वाला सत्तु जेठ महीने की कड़कती धूप तपती दोपहरी में आग उगलती हवायें अपने लय में बह रही थी इनके बीच आग की लपटों को चीरता हुआ एक मुसाफिर लगभग 6 फ़ीट लंबा पतला सा सूखे गन्ने की तरह चेहरे पर लंबी मुछ गहरी काली दाढ़ी, पिचके गाल पसीने से लथपथ भीगा हुआ कुर्ता, जोर से हाफ़तें हुए पुरानी साइकिल से जो चुर्र-चुर्र की आवाज करती हुई हमारे द्वार की ओर बढ़ी आ रही थी बिना ब्रेक लगाए ही साइकिल रुक चुकी थी। साइकिल के पीछे कॅरियल पर एक बड़ा बॉक्स का डब्बा रखा हुआ था जिसमें मलाई बर्फ रहा होगा, मैने ऐसा अंदाजा लगाया था। क्योंकि उस दौर में वैसे बॉक्स मलाई बर्फ बेचने के लिए ही उपयोग किये जाते थे। फटे हुए कुर्ते पहने नीचे एक पुराना गंदा सा सफेद रंग का पायजामा जो किसी और रंग में घुल चुका था। थोड़ी देर ऐसे स्तब्ध खड़ा रहा जैसे वह किसी दूसरे ग्रह पर पैर रख रहा हो,लेकिन वह तो मेरे घर का निरीक्षण कर रहा था जो उसकी निगाहें कुछ ढूढ़ रही थीं। अचानक से उसे अपनी मंजिल मुनासिब हुईं। साइकिल खड़ा करने के लिए सहारा ढूढ़ ही रह था कि नीम का एक पेड़ दिखाई दिया जिसके बगल नीम से सटा हुआ पत्थर का बड़ा ब