एक संस्मरण

                     

        मलाई बर्फ वाला सत्तु


जेठ महीने की कड़कती धूप तपती दोपहरी में आग उगलती हवायें अपने लय में बह रही थी इनके बीच आग की लपटों को चीरता हुआ एक मुसाफिर लगभग 6 फ़ीट लंबा पतला सा सूखे गन्ने की तरह चेहरे पर लंबी मुछ गहरी काली दाढ़ी, पिचके गाल पसीने से लथपथ भीगा हुआ कुर्ता, जोर से हाफ़तें हुए पुरानी साइकिल से जो चुर्र-चुर्र की आवाज करती हुई हमारे द्वार की ओर बढ़ी आ रही थी बिना ब्रेक लगाए ही साइकिल रुक चुकी थी। साइकिल के पीछे कॅरियल पर एक बड़ा बॉक्स का डब्बा रखा हुआ था जिसमें मलाई बर्फ रहा होगा, मैने ऐसा अंदाजा लगाया था। क्योंकि उस दौर में वैसे बॉक्स मलाई बर्फ बेचने के लिए ही उपयोग किये जाते थे। फटे हुए कुर्ते पहने नीचे एक पुराना गंदा सा सफेद रंग का पायजामा जो किसी और रंग में घुल चुका था। थोड़ी देर ऐसे स्तब्ध खड़ा रहा जैसे वह किसी दूसरे ग्रह पर पैर रख रहा हो,लेकिन वह तो मेरे घर का निरीक्षण कर रहा था जो उसकी निगाहें कुछ ढूढ़ रही थीं। अचानक से उसे अपनी मंजिल मुनासिब हुईं। साइकिल खड़ा करने के लिए सहारा ढूढ़ ही रह था कि नीम का एक पेड़ दिखाई दिया जिसके बगल नीम से सटा हुआ पत्थर का बड़ा बैठका भी था। साइकिल के लिए ठिकाना मिल चुका था। वैसे भी साइकिल स्टैण्डरहित थी। साइकिल नीम के तने से लगाने के बाद आश्वस्त होकर दुविधा के धीमी चालों में पैर बढ़ते दिख रहा था। उसका चेहरा लाल अंगार, धूप से बेहाल, थूंक निगलते हुए एक गरीब इंसान असुविधाजनक महसूस करते बढ़ा आ रहा था।

मै अपने ताऊ जी के साथ अपने मड़हे(बैठका) के अंदर बैठ ये नजारा देख ही रहा था कि बाहर से आवाज आई कि नमस्कार चच्चा(अपने अंदाज में सादर सम्मान देते हुए)। ताऊ जी ने आशीर्वाद दिया खुश रहो बेटा। और कहो कैसे आना हुआ!, बड़े दिन बाद!, सब दुरुस्त तो है ना। मुसाफिर हिचकिचाते हुए जवाब दिया- हां चच्चा सब दुरुस्त है। वह सकुचाते हुए जवाब दे रहा था क्योकि हिंदुओं के बस्ती में पहुंच चुका था। उस दौरान समाजवादिता और गरीबी लोगों को अलग अलग रवैये में बाँटे हुए था। बस सत्तू भी उसी रवैये के लिहाज को संभालते हुए मड़हे(बैठका) में बैठ राहत की सांस ले रहा था। उसे देख कोई भी अनुमान लगा सकता था की उसकी मनोदशा क्या कहना चाहती थी। आशा यही रखे हुए था कि बिना प्रश्न किये मनोदशा समझ मुनासिब करा दें तो आभार रहेगा। खैर हमारे ताऊ जी मनोभावों को ललाट से पढ़ने वाले अनुभवी व्यक्तित्व के धनी थे। जो इंटर कॉलेज में हिंदी के लेक्चरर थे। पता नहीं उनके कितने शिष्य बड़े अधिकारी भी थे। उसके मनोभावों को समझते हुए मुझे देख इशारा किये की मुसाफिर को मंजिल तक पहुचाया जाय। बस आदेश निकलने की देरी थी मैं वहां से यूं भागा जैसे मुझे मधुमक्खियों का झुंड खदेड़ा हो। मिट्टी की सुराही से एकदम ठंडा पानी उड़ेलना  शुरू ही किया था कि मम्मी तेज आवाजों में डांटते हुए लहजों में कहां ले जा रहे हो पानी दोपहर में इतनी तेज आग की लपटें निकल रही हैं बाहर घूम रहे हो, लू लग जायेगी!, आओ आराम करो। मम्मी को बताया कि एक गरीब बेचारा आया है जो प्यास से व्याकुल है उसको पानी देकर आता हूँ। तब तक पानी भी भर चुका था। सत्तु दीन को पानी दिया , पानी पीने के बाद राहत की लंबी सांस लेते हुए एक जोर का डकार सुनने को मिली। और धन्यवाद बिना कुछ कहे सिर हिलाकर ज्ञापित किया। फिर ताऊ जी से बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ।  मैं भी वहीं बैठ सुनने लगा।और सोचने लगा कि ताऊ जी इस गरीब मलाई बर्फ वाले से क्यों बात कर रहे हैं। विचार करते हुए उन दोनों की बातें ध्यान से सुन रहा था जो हर घड़ी रुचिकर हो रही थी।

   बातों बातों में पता चला कि ये शख्स कई सालों मुम्बई भी रह चुका था उसके हाव भाव और बातों के अंदाज से ये भी समझ चुका था कि ये बाकी मलाई बर्फ वालों की तरह अनपढ़ गंवार नहीं था बल्कि एक सूझबूझ, चिंतक और दूरद्रष्टा था जो भाग्य और विवशता के आगे घुटने टेके पड़ा था। उसके समाज को देखने का नजरिया अद्भुत था। उसका सामाजिक दृष्टिकोण बल्कि दर्शन मालूम पड़ता था। ज्ञान का मेरे शब्दों में कहे तो वो सत्तु नाम का मुसाफिर उस दौर का सामाजिक वैज्ञानिक था। जिसके भीतर एक भी अवगुण न मालूम पड़ता था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि एक मलाई बर्फ बेचने वाला साधारण सा व्यक्ति जो फटे पुराने कपड़े पहने हुए है इस कदर ज्ञान और समझ का भंडार था। लगभग एक घंटे के वाद-विवाद में सत्तु अपना इतना प्रभाव छोड़ चुका था कि उसे अब पहचानने में देर न होगी। उसके निकलने के बाद ताऊ जी से पूछने पर पता चला कि ये हमारे गांव के ही जांघिया का लड़का है,जो पढ़ने-लिखने में बहुत अच्छा था।  इसको मैं कक्षा 9 में बापू उपरौध इंटर कॉलेज में पढ़ा चुका हूं लेकिन उसके बाद गरीबी और दुर्भाग्यता ने  इसकी पढ़ाई छुड़ा दी और रोजी रोटी के वास्ते बम्बई चले जाना ही इसकी विवशता बन गयी।

खैर सत्तु अब इतना आश्वस्त हो चुके थे कि हमारे यहां उनको बिना किसी सवाल का जवाब दिए पानी मुनासिब होगा। और जब भी आगमन होता हमारे यहां जरूर रुकते पानी वग़ैरह पी राहत की सांस लेता।  खैर उस समाज में एक मलाई बर्फ बेचने वाले के प्रति जो रवैया था वो बहुत सही नहीं रहता था लोग उसको अच्छे दृष्टिकोण से नहीं देखते थे। उनको खरी खोटी सुनाना, मौका मिलते ही डांटना डराना धमकाना लेकिन कई महीनों बीत गए और ये एक सिलसिला बन चुका था बहुत पढ़ा लिखा तो नहीं था लेकिन उसकी समझ और अवलोकन करने की दृष्टि सबसे अलग थी और दूसरी बात तो ये थी कि उसने मुम्बई का जो वर्णन किया वो मुझे झकझोर के रख दिया। मैं आश्चर्यचकित था कि इतनी समझ एक मलाई बर्फ बेचने वाले में कैसी हो सकती है। मुम्बई से तो बहुत लोग वापसी किये थे वो भी दस दस सालों तक रहे थे,, कुछ तो मेरे रिश्तेदार भी थे लेकिन उनके मुख से ऐसा व्याख्यान कभी न सुना था। कुद्दुश का जो समाज को समझने का नजरिया था लोगों के साथ घुलने मिलने का जो अंदाज था वो अवर्णनीय है। जाति पाँति से उसका दूर-दूर तक उसका नाता नहीं था। ना ही कभी गुस्से की झलक उसके अंदर देखने को मिलती थी।

 एक दिन ताऊ जी से बात हो रही थी कि मैने पूछ ही लिया कि सत्तु बाकी व्यक्तियों से अलग क्यों है ताऊ जी बताए कि कुछ लोगों को भगवान  स्वयं पथ देते हैं सत्तु भी उन्हीं में से एक है। सत्तु के बारे में एक ऐसी बात बताये जिसे सुन मैं करुणित हो उठा, लगभग 40 रुपये की बिक्री कर एक दिन शाम को अपने घर रवाना हो रहा था तभी लहंगपुर चौराहे पर एक दुर्घटना घटित हुआ जिसे सत्तु देख रहा था अपनी साइकिल छोड़ उस व्यक्ति को उठा कर हॉस्पिटल ले गया और उसका मरहम पट्टी कराई और उसके 40 रुपये उस डॉक्टर को दे दिए।और वो कोई और नहीं वही था जिसके यहां एक दिन सत्तु पानी माग लिया था तो उसने बेज्जत कर भगा दिया था। और उस दिन उसके यहां चूल्हा तक न जला था। घर में माँ-बाप, पत्नी सबसे खरी-खोटी सुननी पड़ी थी लेकिन मौका मिलते ही उसकी परोपकारिता उमड़ आती थी भले ही घर जाकर खरी खोटी ही सुननी पड़े। ताऊ जी भी ऐसे व्यक्तित्व थे जो कबीर के भक्त थे और उस दौर में जहां जातिवादिता, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, समाज के विभिन्न भ्रांतियां थी उनसे परे थे। सामाजिक सूझबूझ वाले दार्शनिक थे। जो सत्तु को भलीभांति समझ चुके थे। 

सत्तु ने आज से लगभग 15 साल पहले ही घर बैठे-बैठे ही मुझे मुम्बई दर्शन करा चुका था। वो मुम्बई रहा ही नहीं बल्कि जिया था और उस दौरान उसने जिन-जिन स्थानों का व्याख्यान मुझसे किया था आज मैं हूबहू वही देख रहा हूँ मुझे मुम्बई आने पर तनिक भी परेशानी नहीं हुई बल्कि मैं भी खुद शीघ्र ही  मुम्बई को जीने लगा था।


आज कई महीनों बीत गए सत्तु का कुछ पता नहीं चला। सारे बच्चे अब टूटी-फूटी चीजों को सजोहना बंद कर चुके थे क्योंकि अब बच्चे अपना धैर्य खो चुके थे। आशा निराशा की कहर में डूब चुकी थी। उस रास्ते की आंख भी अब धूमिल हो गयी थी जो तपती दोपहरी में अकेले अपने मुसाफिर के इंतजार में कई महीनों व्यतीत कर चुकी थी। लेकिन जब मुसाफिर रहे तब तो आये। कुछ ही दिन और बीते थे कि जांघिया जो सत्तु के बाबूजी थे। मेरे घर आये और ताऊ जी के पास बैठ गए। और बताए कि हम बहुत कोशिश किये मुम्बई, बंगलौर,दिल्ली कहां-कहां नहीं ले गए अपने सत्तु को जमीन जायजाद सब बिक गया लेकिन सत्तु को बचाने में असमर्थ रहे। हमारे सामने ही हमारा जवान बेटा दम तोड़ दिया और हम कुछ नहीं कर पाए, भइया कह कर फुट-फुट कर रोने लगे। वही तो हमारा एक सहारा था जो बुढ़ापे में दो रोटी मुनासिब कराता था। ईश्वर को भी यही मंजूर था बताते हुए उनके आँसुओ की धाराएं रुकने का नाम नही ले रही थीं। मेरी भी आँखों में आंसू आ गए। मेरे भीतर भी एक अंधेरा सन्नाटा सा छा गया जिसका कोई अंत नहीं दिख रहा था। मैं स्तब्ध सा रह गया। ताऊ जी भी बैचैन सा रह गए जिससे हर तीसरे दिन एक अकेला सत्तु बात करता था आज वो कितनी आँखों को अधूरा करके जा चुका था। लेकिन क्या करते स्मृति में रखने के अलावा आज उन पलों को याद करते हुए दुबारा आँखे नम हो गयी। उनको कुछ रुपयों की मदद चाहिए थी जो बब्बा ने दिया। सत्तु आज भी हमारा अजीज दोस्त है और हमेशा रहेगा। जिसके चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान रहती थी। कभी दुःख की आभा देखने को न मिली और न ही कभी जाहिर होने दिया। जबकि सब कुछ पता होते हुए कि उसे कैंसर था लेकिन वो साहसी नवयुवक कभी हार नहीं मानी और जब तक उस 50 किलो वाले सत्तु में जान थी तब तक लगा रहा अपने और परिवार की सेवा में समर्पित रहा। अभी तो उसको 2 बच्चे भी थे। जो अब न जाने कहां होंगे। खैर मैं मुम्बई यात्रा तो उसी दौरान कर लिया था लेकिन आज जब सच में मुम्बई में आना नसीब हुआ तो मेरा अजीज दोस्त नहीं रहा जिसकी कहानी सुन मैं भी कल्पना किया करता था। मेरे दोस्त आज मेरा ये असंभव सपना तो संभव हो गया लेकिन तुम्हारी कमी आज भी खल रही है।



लेखक - मनोज चंद तिवारी

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